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कविता

निर्वस्त्र यात्री

लेओनीद मर्तीनोव

अनुवाद - वरयाम सिंह


मुझे मालूम है यह आकाश
फिर से प्राप्‍त कर लेगा नीलापन

बैठ जायेगी यह ठंडी झाग
पूँछ उठाता उड़ जायेगा यह धुआँ।

सब बस्तियाँ, सब सड़कें
डूब चुकी थीं बर्फ के भीतर

तभी पैदा हुई अफवाहें
निर्वस्‍त्र टहलते उस प्रेत के बारे में।
प्रकट हुआ वह सबसे पहले
प्राचीन भवनों के अवशेषों में
फिर निर्दोष हृदयों में भय फैलाने के लिए
तेज किये उसने खाली जगहों में अपने कदम।
जिनके भी सामने वह प्रकट हुआ
सबने कसम खाते कहा -
कोई उद्देश्‍य नहीं था
नंगे सिर निर्वस्‍त्र टहलते उस प्रेत का।

हमारी भी भेंट हुई है उससे।
सहमत होंगे आप भी
उसके-जैसी भयावह नग्‍नता
किसी ने नहीं देखी आज तक।

कौन है वह? युद्ध के वर्षों की निर्मम धरोहर
जब शत्रु सैनिक सर्दियों में कैदियों के उतरवा देते थे कपड़े
और कहते थे - 'भाग जा!'
संभव है यह कोई पागल स्‍वाभिमानी हो
प्रकृति के साथ छेड़ बैठा हो युद्ध
भीषण शीत और झुलसती गरमी की
स्‍वीकार न हो उसे कोई दासता?
व्‍यर्थ है अनुमान लगाना।
और सख्त हो गये हैं नीले तुषारनद।
शिशिर की हताश लहरें
पैदा कर रही हैं मृगजाल तरह-तरह के।
पर इस श्‍वेत उबाल में
झुलस गया है मैं इस बर्फीली चमक में।
अपने शरीर और आत्‍मा से
अनुभव कर रहा हूँ
कि जीवित है वह शाश्‍वत यात्री-अपोलो!

 


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